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विभिन्न विद्वानों ने समाजीकरण के सिद्धांत का प्रतिपादन कर यह दर्शाने का प्रयास किया कि व्यक्ति अपने समाज के मूल्यों एवं प्रतिमानों को कैसे आत्मसात् करता है| मनोवैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों ने व्यक्ति के समाजीकरण में आत्म (Self) के विकास को केंद्रीय तत्त्व माना| आत्म कोई शारीरिक तथ्य न होकर मानसिक तथ्य है, जिसका तात्पर्य व्यक्ति का स्वयं के बारे में ज्ञान है| आत्म का ज्ञान व्यक्ति के मानसिक अस्तित्त्व का बोध कराता है| समाजीकरण के परिप्रेक्ष्य में हम निम्न विद्वानों के सिद्धांतों की चर्चा करेंगे|
1. कूले का समाजीकरण का सिद्धांत|
2. मीड का समाजीकरण का सिद्धांत|
3. फ्रायड का समाजीकरण का सिद्धांत|
3. दुर्खीम का समाजीकरण का सिद्धांत|
कूले का समाजीकरण का सिद्धांत (Cooley’s theory of Socialization)
कूले का समाजीकरण का सिद्धांत – अमेरिकी समाजशास्त्री कूले ने अपनी पुस्तक ह्यूमन नेचर एंड सोशल आर्डर (Human Nature and Social Order) में समाजीकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया| कूले के अनुसार व्यक्ति एवं समाज को पृथक करके वैज्ञानिक विवेचना नहीं की जा सकती| समाज के संपर्क में आने पर ही व्यक्ति के आत्म का विकास होता है| समाज उसके लिए दर्पण का कार्य करता है| इसीलिए कूले के सिद्धांत को आत्म दर्पण (Looking glass self) के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है|
कूले के अनुसार शिशु जब समाज के संपर्क में आता है तब अंतःक्रिया का अंग बनता है एवं चिंतन प्रक्रिया की शुरुआत होती है| वह अन्यों की स्वयं के बारे में बनायी गयी धारणा से परिचित होता है| इस तरह वह समाज रूपी आईने में स्वयं को देखता है एवं स्वयं को जानने का प्रयास करता है| इस तरह दूसरों की प्रतिक्रिया स्वरूप ही स्वः का निर्माण होता है|
उनके अनुसार स्वः का विकास व्यक्ति के स्वयं के अंतर्निहित विचारों से उत्पन्न नहीं होता बल्कि स्व: के बारे में जो स्थायी धारणा बनती है वह दूसरे व्यक्तियों की सहायता से बनती है| जिस प्रकार दर्पण के बिना हम चेहरा नहीं देख सकते उसी तरह समाज के बिना हम स्वयं के बारे में धारणा नहीं बना सकते| इसलिए स्वः एक सामाजिक उत्पाद है|
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कूले के अनुसार ″स्वः एवं समाज जुड़वा हैं|″ (Self and Society are twin born)
कूले ने आत्म दर्पण के सिद्धांत के तीन चरणों का उल्लेख किया है –
(1) दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं|
(2) दूसरे लोग जो मेरे बारे में सोचते हैं उस संबंध में मैं अपने बारे में क्या सोचता हूँ|
(3) अंततः मैं अपने बारे में किस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ, जैसे – मैं गर्व करता हूं या ग्लानि, यही स्वः है|
रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) ने कूले के सिद्धांत को सारांश रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि –
‘मैं वह नहीं हूँ जो मैं सोचता हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ जो आप मेरे बारे में सोचते हैं, मैं वह हूँ जो आप मेरे तथा मैं अपने बारे में सोचता हूँ|(I am not what I think I am and I am not what you think I am, I am what you think, I think, I am.)
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