भारतीय समाज की संरचना : धर्म

धर्म

भारतीय समाज की संरचना : धर्म; सामान्य अर्थों में अति प्राकृतिक शक्ति में विश्वास ही धर्म है| जिसे व्यक्ति पूजा, आराधना एवं कर्मकाण्डों  माध्यम से समर्पित करता है| किंतु यह धर्म के अंग्रेजी शब्द रिलिजन की परिभाषा है| भारतीय शास्त्रों में धर्म का तात्पर्य कर्तव्यों का पालन करना है, क्योंकि व्यक्ति अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हो सकता, इसलिए भारतीय जीवन में धर्म दिन-प्रतिदिन के कर्तव्यों के पालन से है, जैसे पितृ धर्म है – परिवार का भरण-पोषण करना|

राधाकृष्णन के अनुसार धर्म चार वर्णों तथा आश्रमों के द्वारा जीवन के चार प्रयोजनों (पुरुषार्थ) के संबंध में पालन करने योग्य मनुष्य का समूचा कर्तव्य है|

पी.वी. काणे अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र” (History of Dharmashastra) में लिखते हैं कि धर्मशास्त्र के लेखकों का अभिप्राय किसी मत या रिलिजन से नहीं है, अपितु एक जीवन पद्धति या आचार संहिता से है, जो मनुष्य के कार्यों एवं क्रियाओं को समाज के सदस्य एवं एक व्यक्ति होने के नाते नियमित करती है और यह आचार संहिता मनुष्य का धीरे-धीरे विकास करना चाहती है , जिससे वह स्वयं को मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने योग्य बना सके|

मार्क्स (Marx) के अनुसार धर्म जनता की अफीम है (Religion is the opium of masses)

धर्म का वर्गीकरण या धर्म का प्रकार (Classification or types of Dharma)

धर्म के तीन प्रकार हैं – (1) सामान्य धर्म (2) विशिष्ट धर्म (3) आपद् धर्म

(1) सामान्य धर्म – इसे सार्वभौमिक धर्म भी कहते हैं| यह वह धर्म है जिसका अनुपालन करना सभी के लिए अनिवार्य है चाहे वह स्त्री, पुरुष, बालक अथवा किसी जाति या वर्ण का हो| यह सार्वभौमिक मूल्यों का पुंज है जिसके अनुपालन की सभी से अपेक्षा की जाती है| ये धर्म है – सत्य, क्षमा, अस्तेय(चोरी न करना), शुद्धता, इंद्रियों पर नियंत्रण, सही एवं गलत, वास्तविक एवं अवास्तविक में भेद करना, संतोष, आत्म संयम, अक्रोध, विद्या|

श्रीमद् भागवत में देवर्षि नारद ने प्रहलाद को धर्म के 30 लक्षण बताए हैं| मनु स्मृति में सामान्य धर्म के 10 लक्षण बताए गये हैं|

(2) विशिष्ट धर्म – सामान्य धर्म तो सभी पर समान रूप से लागू होता है, जबकि विशिष्ट धर्म में व्यक्ति की प्रस्थिति, समाज एवं समय के अनुसार भिन्न-भिन्न कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति विद्या ग्रहण करता है जबकि गृहस्थ आश्रम में पारिवारिक कार्य|

चूँकि विशिष्ट धर्म व्यक्ति को अपने प्रस्थिति के अनुरूप करना पड़ता है इसलिए इसे स्वधर्म भी कहा जाता है, जैसे वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, राज धर्म, प्रायश्चित धर्म आदि|

(3) आपद् धर्म – प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कुछ न कुछ संकट अवश्य आते हैं | ऐसी परिस्थिति में यदि व्यक्ति सामान्य एवं विशिष्ट धर्म का पालन करें तो वह अपने अस्तित्व को बचा नहीं पाएगा अथवा उस पर किसी तरह का कलंक लग सकता है | ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म शास्त्रों में आपद् धर्म की चर्चा की गयी है| संकट की स्थिति में व्यक्ति को अपने सामान्य एवं विशिष्ट धर्म से उतने ही मात्रा में विचलित होना चाहिए जितने से उस पर से संकट हट जाय एवं धर्म की रक्षा भी हो जाय|

उदाहरण के लिए एक ऋषि भूख से मरणासन्न थे| उनके सामने शूद्र के यहाँ भोजन करने का वर्ण संकट था| उन्होंने वहाँ भोजन तो किया किंतु पानी नहीं पिया क्योंकि पानी उन्हें अन्यत्र भी मिल जाता| इसके विपरीत गाय का कत्ल करने के लिए कुछ लोग उसे बाँधकर रखे थे| वह गाय किसी तरह छुड़ाकर एक गुफा में चली गयी| गुफा के बाहर बैठे ध्यान मग्न मुनि से जब बधिकों ने पूछा तो वे मौन रहे एवं वे अंदर जाकर गाय पकड़कर उसका कत्ल कर दिये, जबकि मुनि झूठ बोलकर गाय को बचा सकता था| ऐसा न करने के कारण उनकी सिद्धियाँ नष्ट हो गयी| शास्त्रों में इन विपरीत परिस्थितियों को धर्म संकट भी कहा गया है|

सामान्य धर्म एवं विशिष्ट धर्म में अन्तर

(1) सामान्य धर्म मूलतः मूल्यों को व्यक्त करता है जबकि विशिष्ट धर्म कर्तव्यों को|

(2) सामान्य धर्म सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होता है जबकि विशिष्ट धर्म व्यक्ति विशेष की स्थिति एवं समय के अनुसार निर्धारित होता है|

(3) सामान्य धर्म के नियम स्थिर होते हैं जबकि विशिष्ट धर्म के नियम अपेक्षाकृत परिवर्तनशील होते हैं|

(4) सामान्य धर्म का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है जबकि विशिष्ट धर्म विशेष सामाजिक स्थिति के आधार पर निर्धारित होता है|

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