समाजशास्त्र की प्रकृति|Samajshastra ki prakriti|(Nature of Sociology in hindi)


समाजशास्त्र की प्रकृति|Samajshastra ki prakriti|

जब हम किसी विषय के प्रकृति की चर्चा करते हैं तो यह देखते हैं कि वह विषय विज्ञान है या नहीं | समाजशास्त्र की प्रकृति के अंतर्गत हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि समाजशास्त्र किस सीमा तक विज्ञान है | समाजशास्त्र के विज्ञान होने के समर्थन में जॉनसन कहते हैं कि समाजशास्त्र निर्विवाद रुप से विज्ञान है क्योंकि यह अपने अध्ययन के द्वारा सत्यापित की जाने योग्य सामाजिक नियमों का प्रतिपादन करने में सफल हुआ है | इस अध्याय में हम समाजशास्त्र  की प्रकृति के  अंतर्गत निम्न विन्दुओं की चर्चा करेंगे

  1. विज्ञान का अर्थ 
  2. वैज्ञानिक पद्धति क्या है 
  3. इसकी (वैज्ञानिक पद्धति) की विशेषताएँ 
  4. वैज्ञानिक पद्धति के तत्त्व
  5. समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति के विरुद्ध आरोप
  6. समाजशास्त्र किस प्रकार एक विज्ञान है 
  7. रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) का समाजशास्त्र के विज्ञान होने के समर्थन में विचार

विज्ञान का अर्थ

विज्ञान अपने आप में कोई विषय-सामग्री न होकर वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त किया गया व्यवस्थित ज्ञान है | वैज्ञानिक पद्धति द्वारा प्राप्त ज्ञान पर कोई संदेह नहीं रह जाता |   

 स्टुअर्ट चेज (Stuart Chase) के अनुसार विज्ञान का संबंध पद्धति से हैं न कि विषय- सामग्री से |  

अागस्त कॉम्टे (August Comte) ने विज्ञान के लिए तथ्य परख (Factual) ज्ञान का होना भी अनिवार्य माना है | 

वैज्ञानिक पद्धति क्या है –

पद्धति भावनात्मक या तार्किक चिंतन पर आधारित न होकर अनुभव ,परीक्षण, प्रयोग की एक व्यवस्थित कार्य प्रणाली पर आधारित होती है | जिसे निम्न विशेषताओं में देखा जा सकता है |

वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताएं

(1) सत्यापनियता |

(2) निश्चयात्मकता |

(3) वस्तु परखता |

(4) कार्य कारण संबंध की विवेचना |

(5) सामान्यता |

(6) पूर्वानुमान या  भविष्यवाणी की क्षमता |

वैज्ञानिक पद्धति के तत्व

 (1) तथ्य (Fact)

 (2) अवधारणा (Concept)

 (3) सिद्धांत (Theory)

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति के विरुद्ध आरोप

वैज्ञानिक पद्धति का उद्भव प्रकृति के अध्ययन की आवश्यकता के प्रतिउत्तर में हुआ | अतः जहाँ तक वस्तु या प्रकृति के अध्ययन का प्रश्न है ,वैज्ञानिक पद्धति पूरी तरह उपयुक्त है ,क्योंकि इसमें वस्तुनिष्ठता पायी जाती है | लेकिन जब हम वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग समाज एवं मानव के अध्ययन में करते हैं तो मानवीय यथार्थ का कुछ पक्ष इसकी पकड़ से छूट जाता है ,क्योंकि सामाजिक यथार्थ के दो पक्ष होते हैं – पहला वस्तुनिष्ठ एवं दूसरा व्यक्तिनिष्ठ |  वैज्ञानिक पद्धति वस्तुनिष्ठ पक्ष का यथार्थ अध्ययन तो करता है किंतु व्यक्तिनिष्ठ पक्ष का यथार्थ अध्ययन नहीं कर पाता है | इसे निम्न विन्दुओं में देखा जा सकता है –

(1) समाज के कुछ पक्ष भावनात्मक होते हैं जिनकी  मात्रा थोड़ी ही है लेकिन ये सामाजिक यथार्थ के अभिन्न अंग है | अतः यह वैज्ञानिक पद्धति की वस्तुनिष्ठता पर प्रश्नचिह्न  लगा देते हैं |

(2)  गुडे एवं हॉट (Goode and Hatt) के अनुसार मनुष्य का व्यवहार एक समय से दूसरे समय तक इतना परिवर्तित होता रहता है कि इसके बारे में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक एवं सही भविष्यवाणी संभव नहीं है|

(3) सामाजिक विज्ञान में मानव का अध्ययन मानव द्वारा किया जाता है ,अतः पूर्वाग्रह की संभावना बनी रहती है |

(4) समीक्षकों का मानना है कि सामाजिक विज्ञान में पूर्वानुमान व्यक्तियों से संबंधित होते हैं और व्यक्ति पूर्वानुमान को जान सकता है एवं जानबूझकर अपनेप्रयत्नों द्वारा इसे गलत सिद्ध कर सकता है |

उपयुक्त कमियों के बावजूद लुण्डबर्ग(Lundberg) का मानना है कि मानव व्यवहार की जटिलता के सामाजिक ,आर्थिक,मनोवैज्ञानिक ,शारीरिक ,राजनीतिक अनेकों कारक हो सकते हैं | लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका वैज्ञानिक अध्ययन संभव नहीं है | मानव व्यवहार भी कुछ विशिष्ट नियमों द्वारा संचालित होते हैं ,इन्हें सूक्ष्म अध्ययन द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है |

 समाजशास्त्र किस प्रकार एक विज्ञान है

समाजशास्त्र को विज्ञान मानने के आधार निम्नलिखित है –

(1) समाजशास्त्रीय ज्ञान का आधार वैज्ञानिक पद्धति– समाजशास्त्र में तथ्यों के संकलन के लिए विभिन्न वैज्ञानिक पद्धतियों काप्रयोग किया जाता है ,जैसे – अवलोकन पद्धति ,अनुसूची ,साक्षात्कार ,सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति आदि |

(2) समाजशास्त्र में क्या है का वर्णन—  समाजशास्त्र इस बात पर विचार नहीं करता कि क्या अच्छा है ,क्या बुरा है या क्या होना चाहिए ,बल्कि घटना जिस रूप में है ,उसी रूप में उसका चित्रण करता है |

(3) समाजशास्त्र में कार्य-कारण संबंधों की विवेचना— प्रत्येक सामाजिक घटना का कोई न कोई कारण अवश्य होता है ,जिसका पता लगाना समाजशास्त्री का दायित्व है| कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत  एवं दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत कार्य कारण संबंध को स्पष्ट करता है |

(4) समाजशास्त्र में तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण—  असंबद्ध आँकड़ों या तथ्यों के आधार पर कोई वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता | समाजशास्त्र में  प्राप्त तथ्यों को समानता के आधार पर विभिन्न वर्गों में बाँटा जाता है जिसे वर्गीकरण कहते हैं | वैज्ञानिक निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए इन तथ्यों का विश्लेषण किया जाता है |

(5) समाजशास्त्र में पूर्वानुमान की  क्षमता —  विज्ञान की एक कसौटी पूर्वानुमान करने की क्षमता का होना है ,इसका तात्पर्य वैज्ञानिक पद्धति के माध्यम से सामान्यीकरण इतना निश्चित रुप से हो जाए कि वर्तमान में प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर भविष्य की घटनाओं के बारे में अनुमान लगाया जा सके | ऐसा होने पर उस पर नियंत्रण की संभावना बढ़ जाती है |

 रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) ने अपनी पुस्तक द सोशल ऑडर (The Social Order) में

समाजशास्त्र के विज्ञान होने के समर्थन में निम्नलिखित विशेषताओं का  वर्णन किया है-

(1) समाजशास्त्र वास्तविक विज्ञान (Positive Science) है न कि आदर्शात्मक (Normative) |

(2) समाजशास्त्र एक विशुद्ध (Pure) विज्ञान है न कि व्यावहारिक विज्ञान (Applied Science) |

(3) समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान (Social Science) है न कि प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) |

(4) समाजशास्त्र एक अमूर्त (Abstract) विज्ञान है न कि मूर्त (Concrete) |

(5) समाजशास्त्र एक सामान्य  (General) विज्ञान है न कि विशेष (Special) विज्ञान  |

(6) समाजशास्त्र तार्किक (Rational) एवं अनुभवसिद्ध (Empirical) विज्ञान है |

समाजशास्त्र की प्रकृति के अंतर्गत कुछ विद्वान इसे  विशुद्ध (Pure) विज्ञान बनाना चाहते हैं; जबकि अन्य विद्वान इसकी संभावना पर प्रश्न चिह्न लगा देते हैं | इसका कारण यह है कि प्राकृतिक विज्ञान में केवल उन्हीं सामाजिक प्रघटनाआें का अध्ययन किया जा सकता है; जिसका स्पष्ट रूप से निरीक्षण संभव हो| अर्थात् घटनाएं वस्तुनिष्ठ हों; जबकि सामाजिक घटनाओं में वस्तुनिष्ठता के साथ व्यक्तिनिष्ठता (मानवीय पक्ष – जैसे भावनाएं एवं संवेदनाएं ) भी निहित हैं| इसलिए समाजशास्त्र को विशुद्ध विज्ञान बनाने से सामाजिक यथार्थ के साथ न्याय नहीं हो पाएगा | यही कारण है कि समाजशास्त्र में मानविकी विचारधारा के विद्वान भी हैं; जिसके अंतर्गत तीन संप्रदाय है –

(1) प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद (Symbolic Interactionism) — जी.एच. मीड (G. Mead) से प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद की औपचारिक शुरूआत मानी जाती है | बाद में ब्लूमर (Blummer) भी इससे जुड़ जाते हैं | यह संप्रदाय, लोग किस प्रकार से प्रतीकों के माध्यम से अर्थ का निर्माण करते हैं ,का अध्ययन करता है | यह समाज को व्यक्ति के दिन-प्रतिदिन के सामाजिक अंतःक्रिया के रूप में देखता है | यह अंतःक्रिया प्रतीकों के माध्यम से होती है | अतः प्रतीकों की अनुपस्थिति में मानवीय क्रिया संभव नहीं है |

प्रतीकों का का एक उदाहरण भाषा है | भाषा मानवीय संचार का महत्वपूर्ण साधन है | दूसरों की क्रियाओं का साक्षात्कार हमें प्रतिकात्मक रूप से अर्थात् भाषायी माध्यम से होता है |अतः दूसरों की भाषा के बारे में हम जो व्यक्तिनिष्ठ अर्थ लगाते हैं; उसी के अनुरूप अपनी क्रिया भी निर्धारित करते हैं |

(2) प्रघटनाशास्त्र (Phenomenology) – अल्फ्रेड शुट्ज (Alfred Shutz) को प्रघटनाशास्त्र का जनक माना जाता है ,उन्होंने अपनी किताब – द फिनॉमिनोलॉजी ऑफ सोशल वर्ल्ड (The Phenomenology of Social World) में इसका प्रतिपादन किया| प्रघटनाशास्त्र का तात्पर्य अनुभवों के विस्तृत अध्ययन से है | घटना कोई भी हो ,जिसे व्यक्ति की इंद्रियां ग्रहण करती हों, उसका अध्ययन किया जाता है |

(3) नृजातिपद्धतिशास्त्र (Ethnomethodology) — नृजातिपद्धतिशास्त्र का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी विद्वान हेरॉल्ड गारफिंकेल (Harold Garfinkel) ने किया | नृजातिपद्धतिशास्त्र अध्ययन का एक तरीका है | लोग अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में आस-पास की सामान्य घटनाओं को देखने, समझने एवं अर्थ लगाने में जिन तरीकों का प्रयोग करते हैं ,उसी का अध्ययन करता है |

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10 thoughts on “<center>समाजशास्त्र की प्रकृति|Samajshastra ki prakriti|(Nature of Sociology in hindi)<center/>”

  1. Sir
    Topic 1 samajshastra evam samanya bodh

    Topic 2 samajshastra mein pratyakshwad tatha navpratyakshwad

    Ke notes send kar dijiye

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