जाति व्यवस्था (Jati Vyavastha)
जाति जन्मजात प्रस्थिति पर आधारित एक समूह है, जो अंत:विवाही होता है| इसमें प्रत्येक जाति सामाजिक संरचना में स्वयं को एक निश्चित स्थिति में पाती है| प्रत्येक जाति में अपने जाति के प्रति हम की भावना (We feeling) पायी जाती है| ये जातियाँ कुछ विचारधाराओं एवं कर्मकाण्ड से प्रेरित होती हैं|
प्रदत्त प्रस्थिति पर आधारित विशेषताओं के कारण जातियाँ उच्चता एवं निम्नता में बँटी होती हैं, जो इनमें स्तरीकरण के रूप में व्यक्त होता है| यह स्तरीकरण स्थायी प्रकृति का होता है| लुइ ड्यूमो (Louis Dumont) अपनी पुस्तक होमो हाइरारकिकस (Homo Hierarchicus) में लिखते हैं कि स्तरीकरण यू तो सार्वभौमिक आवश्यकता एवं प्रघटना है फिर भी भारतीय जाति व्यवस्था में पाए जाने वाले स्तरीकरण में जो स्थिरता दिखायी देती है वह विश्व के अन्य भागों में दिखायी नहीं देती है|
ड्यूमो के अनुसार भारतीय जाति व्यवस्था संसतरण (Hierarchy) को व्यक्त करता है| स्तरीकरण में जब सूचिता एवं प्रदूषण (Purity and Pollution) की अवधारणा जुड़ जाती है तब वह अधिक कठोर रूप संसतरण में बदल जाती है| सूचिता एवं प्रदूषण का तात्पर्य जाति व्यवस्था में कुछ जातियों के कार्यों को अछूत समझा जाता है एवं कुछ के कार्यों को उच्च| निम्न एवं अछूत कार्य करने वाले जातीय समूह से समाज का अन्य जातीय समूह सामाजिक संपर्क से लेकर खान-पान तक प्रतिबंधित रहता है, जिससे ये निम्न जातियाँ स्थायी रूप से समाज से अलग हो जाती है|
ईरावती कर्वे (Iravati Karve) के अनुसार यदि हम भारतीय संस्कृति के तत्त्वों को समझना चाहते हैं तो जाति प्रथा का अध्ययन नितांत आवश्यक है|
मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) के अनुसार जब स्थिति पूर्ण रूप से पूर्व निश्चित हो एवं मनुष्य बिना किसी परिवर्तन की आशा के अपना भाग्य लेकर उत्पन्न होते हैं तब वर्ग जाति का रूप ले लेता है|
जे.एच.हट्टन (J. H. Hutton) अपनी पुस्तक कास्ट इन इंडिया (Caste in India) में लिखते हैं कि जाति व्यवस्था के सम्यक अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक सेना की आवश्यकता है|
कूले (Cooley) के अनुसार जब एक वर्ग पूर्णतः वंशानुक्रम पर आधारित हो जाता है, तब उसे हम जाति कहते हैं|
एम. एन. श्रीनिवास (M. N. Srinivas) ने दक्षिण भारत के रामपुरा गाँव के अध्ययन में संस्कृतीकरण (Sanskritisation) की अवधारणा का प्रतिपादन किया| जब कोई निम्न जाति उच्च जाति के रहन-सहन, व्यवहार आदि को अपना लेती है एवं स्वयं को उच्च जाति होने का दावा करती है तो इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण कहते हैं| सर्वप्रथम श्रीनिवास ने पाया कि निम्न जातियाँ ब्राह्मण जातियों का अनुकरण करती हैं लेकिन प्रभु जाति (Dominant Caste) की अवधारणा देने के बाद उन्होंने पाया कि जातियाँ प्रभु जाति का अनुकरण करती है|
जाति की विशेषताएँ
(1) जाति की सदस्यता जन्मजात होती है|
(2) जाति अंतः विवाही समूह होता है|
(3) जातियों के व्यवसाय पूर्व निश्चित होते हैं|
(4) जातियों में सामाजिक संपर्क तथा खान-पान संबंधी निषेध पाए जाते हैं|
(5) जातियों में उच्चता एवं निम्नता का स्पष्ट विभाजन होता है|
प्रोफेसर जी.एस. घुरिये जाति की निम्न छ: विशेषताओं का उल्लेख करते हैं –
(1) जाति व्यवस्था समाज का खण्डात्मक विभाजन को स्पष्ट करती है|
(2) जातियों में उच्चता एवं निम्नता का संस्तरण पाया जाता है|
(3) विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक संपर्क एवं खान-पान संबंधी प्रतिबंध पाए जाते हैं|
(4) जाति व्यवस्था में नागरिक एवं धार्मिक निर्योग्यता तथा विशेषाधिकार विद्यमान है|
(5) जाति व्यवस्था में पशेे के स्वतंत्र चुनाव पर प्रतिबंध होते हैं|
(6) जाति व्यवस्था में विवाह संबंधी प्रतिबंध होते हैं|
जाति व्यवस्था के लाभ (Merits of Caste System)
(1) व्यवसाय जन्म से निर्धारित होने के कारण कार्य को लेकर जातियों में मतभेद एवं विवाद नहीं होता है|
(2) जजमानी व्यवस्था के द्वारा एक जाति की दूसरे पर अंतर्निर्भरता होने के कारण एकीकरण बना रहता है|
(3) जातियाँ अंत:विवाही होती हैं, जिससे रक्त की शुद्धता बनी रहती है|
(4) जातियाँ सांस्कृतिक अस्मिता बनाए हुए हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांंतरित होती रहती हैं| यह विविधता में एकता का परिचायक है|
(5) प्रत्येक जाति के कुछ नियम होते हैं जो लोगों के व्यवहार पर नियंत्रण रखते हैं| जातीय नियमों का उल्लंघन करने पर जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है|
(6) जाति पंचायत के माध्यम से व्यक्ति या समूह पर आने वाले संकट का समाधान जल्द ही हो जाता है|
जाति व्यवस्था के दोष (Demerits of Caste System)
(1) व्यवसाय निश्चित हो जाने से जातीय संरचना सामाजिक गतिशीलता में बाधा उत्पन्न करती है|
(2) जाति प्रथा में खान-पान तथा सामाजिक संपर्क संबंधी निषेध होते हैं जिससे समाज का कुछ भाग मुख्यधारा से वंचित हो जाता है|
(3) जाति प्रथा प्रजातंत्र के मूल्य स्वतंत्रता एवं समानता के साथ न्याय नहीं कर पाती|
(4) छुआछूत संबंधी निषेध या नियम मानवीय एवं नैतिक मूल्यों की अवहेलना करते हैं|
(5) जाति व्यवस्था के नियम परम्पराओं एवं रूढ़ियों से संचालित होते हैं, जो नवीनता की विरोधी है|
(6) जातिवाद के कारण कभी-कभी जातियों में संघर्ष भी दिखाई देता है|
(7) डॉ राधाकृष्णन के अनुसार दुर्भाग्यवश वही जाति-प्रथा जिसे सामाजिक संगठन के नष्ट होने की रक्षा करने के साधन के रुप में विकसित किया गया था आज उसी की उन्नति में बाधक बन रही है|
जाति और वर्ण में अंतर (Different between Caste and Class)
(1) वर्ण व्यवस्था का आधार व्यक्ति के गुण एवं कर्म हैं, जबकि व्यक्ति की जाति जन्म से निर्धारित होती है|
(2) वर्ण की संख्या केवल चार है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र| जबकि जातियों की संख्या अनगिनत हैं|
(3) वर्ण व्यवस्था के स्तरीकरण में सभी जगहों में समानता पायी जाती है जैसे – ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च तथा शूद्रों का सबसे निम्न होता है, जबकि क्षेत्रीय आधार पर जाति की सामाजिक स्थिति में अंतर पाया जाता है|
(4) गुणों पर आधारित होने के कारण वर्ण व्यवस्था लचीली होती है, जबकि जाति कठोर एवं बंद व्यवस्था है|
(5) वर्ण में अनुलोम विवाह के अंतर्गत वैवाहिक संबंधों में शिथिलता है, जबकि एक जाति के दूसरे जाति से विवाह पर पूर्ण प्रतिबंध है|
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत (Theory of origin of caste system)
(1) परम्परागत सिद्धांत (Traditional Theory) –
इस सिद्धांत की उत्पत्ति का स्रोत वेद, उपनिषद, धर्मशास्त्र है | ऋग्वेद के अनुसार ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रियों का भुजाओं से, वैैश्यों का उदर से एवं शूद्रों का पैरों से हुआ है | गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैंने चारों वर्णों की रचना व्यक्तियों के गुण एवं कर्म के आधार पर की |समीक्षा या आलोचना – यह सिद्धांत जाति नहीं वरन् वर्ण की उत्पत्ति को स्पष्ट करता है, साथ ही वर्तमान वैज्ञानिक युग में उपयुक्त बातों को सत्यापित नहीं किया जा सकता है |
(2) प्रजातीय सिद्धांत (Racial Theory) –
अनेक विद्वानों की मान्यता है कि जाति प्रथा का उद्गम प्रजातीय भिन्नता (Racial differences) एवं मिश्रण के कारण हुआ है | इस सिद्धांत के प्रमुख प्रतिपादक हरबर्ट रिजले (Herbert Risley) हैं | उन्होंने प्रजाति मिश्रण एवं अनुलोम विवाह को जाति की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी माना है |
जी. एस. घुरिये ने भी रिजले के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए कहा कि आर्यों एवं अनार्यों के प्रजातीय एवं सांस्कृतिक संपर्क ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी हैं |
डॉ मजूमदार ने भी रिजले के प्रजातीय सिद्धांत का समर्थन किया | उनका मत है कि जब आर्य भारत में आये, उससे पूर्व ही उनमें तीन वर्ग थे, जो परस्पर विवाह नहीं करते थे | भारत में आने पर द्रविणों को उन्होंने न्यूनतम श्रेणी में रखा |समीक्षा- यदि प्रजाति ही जाति की उत्पत्ति का आधार है तो दुनिया के दूसरे भागों में प्रजातीय संपर्क होने पर जाति व्यवस्था क्यों नहीं अस्तित्व में आयी | वस्तुतः जाति की उत्पत्ति में प्रजातीय मिश्रण महत्वपूर्ण कारण रहा है किंतु एकमात्र कारण नहीं |
(3) धार्मिक सिद्धांत (Religious Theory) –
जाति प्रथा की उत्पत्ति में धर्म को आधार मानने वालों में होकार्ट तथा सेनार्ट प्रमुख हैं | होकार्ट का मत है कि धार्मिक क्रियाओं अथवा कर्मकाण्डों के कारण ही जाति व्यवस्था का उद्गम हुआ है |
सेनार्ट के अनुसार पारिवारिक पूजा तथा कुल देवता को चढ़ाये जाने वाले भोजन में भिन्नता एवं निषेधों के कारण ही जाति प्रथा का जन्म हुआ |
समीक्षा – होकार्ट एवं सेनार्ट का सिद्धांत एकांगी है इसमें अन्य पक्षों की अवहेलना की गयी है |
(4) व्यावसायिक सिद्धांत (Occupational Theory) –
पेशे के आधार पर जाति व्यवस्था की उत्पत्ति की व्याख्या नेसफील्ड (Nesfield) ने किया है | अपनी पुस्तक ब्रीफ व्यू ऑफ कास्ट सिस्टम (Brief view of Caste System) में लिखते हैं कि एक व्यवसाय के करने वाले लोगों ने अपने को एक जाति घोषित कर लिया | उनके अनुसार व्यवसाय और केवल व्यवसाय ही जाति प्रथा की उत्पत्ति लिए उत्तरदायी है |
समीक्षा – हट्टन कहते हैं कि व्यावसायिक संघ दुनिया के दूसरे भागों में भी रहे हैं फिर वहाँ जातियाँ अस्तित्व में क्यों नहीं आयी |
(5) राजनीतिक सिद्धांत (Political Theory) –
इसे जाति की उत्पत्ति का ब्राह्मणवादी सिद्धांत भी कहा जाता है| यह सिद्धांत मुख्य रूप से अबे डुबोइस (Abbe Dubois) का है| उनके अनुसार जाति प्रथा ब्राह्मणों की चतुर युक्ति और राजनीतिक योजना का फल है, जो उन्होंने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए निर्मित किया |
घुरिये ने भी इस पर मत व्यक्त किया हैं| जी. एस. घुरिये (G. S. Ghurye) के अनुसार जाति भारतीय-आर्य संस्कृति की ब्राह्मणवादी संतान (उपज) है जो गंगा के मैदान में पनपी और वहाँ से भारत के अन्य भागों में फैल गई |(Caste is a Brahminic child of Indo-Aryan culture cradle in the land of the Ganges and thence transformed to other parts of India)
घुरिये की किताबें – (1) कास्ट एण्ड रेस इन इंडिया (Caste and Race in India) (2) इंडियन साधूज (Indian Sadhus)
समीक्षा – जाति व्यवस्था की उत्पत्ति को केवल ब्राह्मणों की युक्ति के आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता | इसके लिए अन्य कारण भी उत्तरदायी रहे हैं |
(6) मानावाद का सिद्धांत (Theory of Manaism) –
इस सिद्धांत का प्रतिपादन हट्टन ने 1931 की जनगणना रिपोर्ट में प्रजातीय सिद्धांत की आलोचना के दौरान किया | हट्टन 1929 से 1933 तक भारत के जनगणना आयुक्त थे| उन्होंने नागा जनजाति का अध्ययन किया था| उनके अनुसार माना एक रहस्यमयी अलौकिक शक्ति है जो स्पर्श द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे में जा सकती है | इसका प्रभाव अच्छा एवं बुरा दोनों हो सकता है | अन्य समूहों ने माना से बचने के लिए अन्तर्विवाह, खान-पान एवं सामाजिक सहवास संबंधी निषेध लागू किया | जो जाति की उत्पत्ति का कारण बना |
समीक्षा – मजूमदार एवं मदन (Mazumdar and Madan) के अनुसार माना की धारणा विश्व के सभी जनजातीय समाज में पायी जाती है, फिर भारत में ही जाति की उत्पत्ति क्यों |