व्यक्ति और समाज के संबंध के विषय में मुख्यतः दो सिद्धांत दिए गए हैं| पहला -सामाजिक समझौते का सिद्धांत, जिसमें व्यक्ति को प्राथमिक एवं समाज को गौण माना गया है| दूसरा समाज का सावयवी सिद्धांत, जिसमें समाज को प्राथमिक एवं व्यक्ति को गौण माना गया है|
अंत:क्रिया द्वारा व्यक्तियों के बीच जो संबंध पाये जाते हैं उसी को समाज कहते हैं, साथ ही समाज में विद्यमान रीति-रिवाज, मूल्य, प्रतिमान, प्रथा, परम्परा आदि को व्यक्ति समाजीकरण के माध्यम से सीखता है| इस तरह व्यक्ति एवं समाज एक दूसरे के पूरक है|
दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) ने भी मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा है (Man is a social animal)| तात्पर्य है कि मनुष्य समाज से ही संस्कृति को सीखता है, अतः समाज से अलग व्यक्ति का अस्तित्व सम्भव नहीं है|
मैकाइवर एवं पेज (Maciver and Page) के अनुसार मानव प्रकृति का निर्माण केवल समाज में ही सम्भव है, व्यक्ति और समाज के बीच एक तरफा संबंध नहीं है|
(1) सामाजिक समझौता सिद्धांत (Social Contract Theory) – यह सिद्धांत हॉब्स, लॉक, तथा रूसो के विचारों पर आधारित है| इनका मानना है कि व्यक्ति ने ही अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जानबूझकर समाज की स्थापना की| प्रारम्भ में मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में रहता था, उस पर किसी प्रकार का दबाव एवं नियंत्रण नहीं था| किंतु जनसंख्या के बढ़ने पर ईर्ष्या, तनाव, विवाद तथा संघर्ष आदि बढ़ने लगें| इस स्थित से बचने तथा अपनी सुरक्षा और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही व्यक्तियों ने सोंच-विचार कर समाज की स्थापना की| व्यक्ति का अस्तित्त्व समाज के पूर्व भी था | व्यक्तियों ने ही समझौते के द्वारा समाज की नींव रखी| इस सिद्धांत के समर्थकों ने समाज की तुलना में व्यक्ति को प्रधानता दी|
समीक्षा या आलोचना –
(1) मानव इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है जहाँ मनुष्य का अस्तित्व तो रहा हो किंतु समाज का नहीं|
(2) यह सिद्धांत व्यक्ति एवं समाज को एक दूसरे से भिन्न मानता है, जबकि दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं|
(3) यह सिद्धांत व्यक्ति को प्रमुख एवं समाज को गौण मानता है, जबकि वास्तव में व्यक्ति एवं समाज दोनों एक दूसरे के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं|
(2) समाज का सावयवी सिद्धांत (Organismic theory of Society) – इस सिद्धांत से मुख्य रुप से हरबर्ट स्पेन्सर का नाम जुड़ा है| उनके अनुसार समाज एक सावयव या जीव रचना है| समाज रूपी शरीर के कोष्ठ व्यक्ति हैं| इस सिद्धांत के समर्थक समाज को शरीर के रूप में मानते हैं, तथा शरीर के विभिन्न अंग जैसे हाथ, पैर, कान, नाक आदि व्यक्ति हैं| जिस तरह शरीर से पृथक इन अंगों का कोई अस्तित्व नहीं है, उसी तरह व्यक्ति का भी समाज से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है| जिस तरह शरीर के परस्पर अंगों में अंतर्निर्भरता पायी जाती है, उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति भी अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करके एक दूसरे पर निर्भर है| इस सिद्धांत के अनुसार समाज से पृथक व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है|
समीक्षा –
(1) शरीर एवम् उसके अंग मूर्त है जबकि समाज अमूर्त| अतः शरीर एवं समाज की तुलना तार्किक नहीं है|
(2) शरीर के अंग आपस में जुड़े रहते हैं उनके अलग होने से अंगो का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो जाता है, जबकि समाज के इकाई के रूप में किसी व्यक्ति को समाज से अलग करके देखा जा सकता है|
(3) शरीर जन्म एवं मृत्यु से गुजरता है, जबकि समाज के बारे में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है|
सामाजिक समझौता एवं सावयवी सिद्धांत में अंतर –
(1) ये दोनों सिद्धांत एक दूसरे के विपरीत हैं| जहाँ सामाजिक समझौता सिद्धांत व्यक्ति को अधिक महत्व देता है, वहीं सावयवी सिद्धांत समाज को|
(2) सामाजिक समझौता सिद्धांत के अनुसार पहले व्यक्ति आया फिर समाज| लेकिन सावयवी सिद्धान्त के अनुसार समाज का अस्तित्व प्रारंभ से ही था|
व्यक्ति और समाज के बीच संबंध (Relation between Individual and Society)
व्यक्ति और समाज परस्पर निर्भरशील हैं| व्यक्ति एवं समाज के संबंधों को समझने के लिए हम देखते हैं कि समाज का व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है एवं व्यक्ति किस तरह समाज को प्रभावित करता है-
(1) व्यक्ति का समाज पर प्रभाव (Impact of Society on individual) – व्यक्ति की समाज पर निर्भरता व्यक्त करने की दृष्टि से मैकाइवर एवं पेज ने तीन आधार बताए हैं : प्रथम – व्यक्ति के आत्म (Self) का विकास समाज में ही होता है| द्वितीय – व्यक्ति के व्यवहार का निर्धारण सामाजिक विरासत के आधार पर होता है| तृतीय – समाज से पृथक रहने वाले बच्चों में मानवोचित गुण नहीं पाये गए| इससे स्पष्ट हो जाता है कि समाज के बिना बच्चा या मनुष्य पशु है|
(2) समाज पर मनुष्य का प्रभाव (Impact of individual on Society) – व्यक्ति अपनी आवश्यकता के कारण एक दूसरे के संपर्क में आता है, एवं अंत:क्रिया करता है, जिससे सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है, यही संबंध ही तो समाज है| व्यक्ति अपने संस्कृति का स्वयं निर्माता है| अपने चिन्तन, अनुभव, प्रयत्नों के द्वारा अपने संस्कृति का विकास करता है| संस्कृति के अंतर्गत ज्ञान, लोकाचार, परम्परा, प्रथा, मूल्य, धर्म एवं भौतिक वस्तुएं आती हैं| समाज किस तरह का होगा यह बहुत हद तक उसकी स्कृति पर निर्भर करता है, जैसे ही किसी समाज की संस्कृति बदलती है समाज भी परिवर्तित हो जाता है|स्पष्ट है कि समाज एवं व्यक्ति दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं, तथा एक दूसरे के लिए अत्यंत आवश्यक भी हैं| यहाँ कूले (Cooley) का कथन प्रासंगिक हो जाता है कि व्यक्ति एवं समाज दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, व्यक्ति के बिना समाज एवं समाज के बिना व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती|