सामाजिक परिवर्तन के कारक
(Factors of Social Change)

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सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा, विशेषताएं एवं परिवर्तन  के लिए यहाँ क्लिक करें – सामाजिक परिवर्तन (Social Change)

सामाजिक संरचना में प्रत्येक इकाई का यह प्रयास रहता है कि वह प्रदत्त प्रस्थिति से उपर आकर अर्जित स्थिति को प्राप्त करें| इस प्रयास में वह अपनी योग्यता एवं कुशलता का प्रदर्शन करता है, जिसके कारण वह अपने पूर्ववर्ती स्थित को परिवर्तित करता है, यही परिवर्तन का प्रमुख कारण है| विभिन्न विद्वानों ने सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारकों का उल्लेख किया है, वे कारक निम्न  है –

1. सामाजिक परिवर्तन का जनसंख्यात्मक कारक

2. सामाजिक परिवर्तन का जैवकीय  कारक

3. सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिकी कारक

4. सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक कारक

5. सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक कारक

1. सामाजिक परिवर्तन का जनसंख्यात्मक कारक (Demographic factors of Social Change)

जनसंख्यात्मक कारक, सामाजिक परिवर्तन लाने में महतत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, क्योंकि किसी भी समाज की रचना (Composition) को जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है| रचना के अन्तर्गत जन्म-दर, मृत्यु-दर, जनसंख्या वृद्धि, जनसंख्या ह्रास, स्त्री- पुरुष लिंगानुपात, प्रवसन शामिल हो जाते हैं| जिसे निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(I) जनसंख्या के आकार में परिवर्तन – समाज में गरीबी, भुखमरी, भिक्षावृत्ति, बेरोजगारी आदि का प्रत्यक्ष संबंध अधिक जनसंख्या से है| जनसंख्या में अधिकता या कमी आश्रित एवं कार्य कुशल जनसंख्या के अनुपात में परिवर्तन लाता है| इस परिवर्तन का परिणाम परिवार, नातेदारी एवं अन्य संस्थाओं पर पड़ता है, जो सामाजिक संबंधों में परिवर्तन लाता है|

दुर्खीम ने अपनी पुस्तक डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी (Division of Labour in Society) में समाज के यांत्रिक एकता से सावयवी एकता में बदलने के लिए जनसंख्या वृद्धि को कारण मानते हैं| उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि से नैतिक एवं भौतिक घनत्व (Moral and Material density) बढ़ता है, तब अन्तर्निर्भरता के कारण समाज में यांत्रिक एकता (Mechanical Solidarity) के स्थान पर सावयवी एकता (Organic Solidarity) की स्थापना हो जाती है|

(II) जन्म एवं मृत्यु दर – जन्म एवं मृत्युदर जनसंख्या के आकार को प्रभावित करती है| जिस देश में जन्म-दर, मृत्यु-दर से कम है, वहाँ जनसंख्या ह्रास हो रहा है, जो सामाजिक संस्थाओं को प्रभावित करता है, जैसे – आस्ट्रेलिया| जहाँ जन्मदर, मृत्युदर से अधिक है वहाँ जनसंख्या वृद्धि होती है, जो अनेक सामाजिक समस्याओं जैसे -गरीबी, बेकारी, भिक्षावृत्ति में वृद्धि करती है, जैसे -भारत| जब जन्मदर एवं मृत्युदर में संतुलन बना रहता है तो जनसंख्या स्थिर रहती है| भारत में 2045 तक जनसंख्या स्थिरता का लक्ष्य निर्धारित किया गया है|

(III) उत्प्रवास एवं आप्रवास (Emigration and Immigration) – जब अपने देश के व्यक्ति दूसरे देश में जाकर रहने लगते हैं तो इसे उत्प्रवास कहते हैं एवं जब अन्य देश के लोग अपने देश में आकर रहने लगते हैं तो इसे आप्रवास कहते हैं| उत्प्रवास एवं आप्रवास के कारण एक देश से दूसरे देश में रीति-रिवाज, प्रथा, जीवन शैली, कला, विज्ञान आदि से लोग परिचित होते हैं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा एक दूसरे से प्रभावित होते हैं| कहीं- कहीं पर-संस्कृतिग्रहण (Acculturation) भी दिखायी देता है| जो समाज में परिवर्तन लाता है|

(IV) आयु – यदि किसी देश या समाज में बुजुर्गों की संख्या अधिक है तो वहां रूढ़ियों एवं परंपराओं की मान्यता अधिक दिखायी देती है, साथ ही आश्रित जनसंख्या होने के कारण उत्पादन में सहयोग नहीं कर पाते जो संबंधों को प्रभावित करता है| वहीं यदि युवाओं की जनसंख्या अधिक है तो समाज नवीनता की ओर उन्मुख होता है| भौतिक एवं नवीन विचारों को तेजी से अपना लेता है, जो सामाजिक परिवर्तन के रूप में दिखायी देता है|

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2. सामाजिक परिवर्तन के जैविकीय कारक (Biological factors of social change)

जैविकीय कारक का तात्पर्य उन विशेषताओं या प्रभावों से है, जो व्यक्ति अपने माता-पिता या पूर्वजों से वंशानुक्रमण द्वारा प्राप्त करता है| शारीरिक कद, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता, स्वास्थ्य, प्रजननता आदि जैवकीय कारकों से प्रभावित होते हैं| कमजोर या जन्मजात बिमारी के कारण व्यक्ति समाज के विकास में योगदान नहीं दे पाता| यह स्थिति सामाजिक, आर्थिक एवं वैवाहिक स्थितियों को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है| डार्विन अपने सिद्धांत प्राकृतिक चयन (Natural Selection) में कहते हैं कि प्रकृति केवल उन्हीं लोगों को जीवित रखती है जो जैविकीय गुणों में श्रेष्ठ होते हैं|

यदि किसी क्षेत्र में जैविकीय रूप से स्त्रियों की संख्या अधिक है या परिस्थिति उनके अनुकूल है तो ऐसी स्थिति में उस समाज में वैवाहिक स्वरूप प्रभावित होता है| ऐसे समुदाय में बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन स्वाभाविक रूप से अधिक होता है| इसके विपरीत यदि पुरुषों की जनसंख्या स्त्रियों से अधिक है तो बहुपति विवाह का प्रचलन देखने को मिलता है| ऐसे समुदाय में कन्या धन एवं दहेज एक प्रथा की तरह कार्य करने लगता है, जो सामाजिक संबंधों को प्रभावित करता है|

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3. सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकी कारक (Technological Factors of Social Change)

प्रौद्योगिकी का तात्पर्य यंत्र एवं उपकरण से है, जिससे मनुष्य अपने कार्यों को सरलता एवं सुगमता से पूरा कर पाता है| इसके अंतर्गत पशु उर्जा एवं निर्जीव उर्जा के साथ मनुष्य का ज्ञान भी शामिल है, जिसके द्वारा मशीनों का संचालन होता है| मनुष्य का ज्ञान ही मशीन के निर्माण की दिशा एवं दशा दोनों तय करता है|

वर्तमान युग में प्रौद्योगिकी सामाजिक संबंधों के परिवर्तन में अत्यंत महत्वपूर्ण कारक है, जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी से तो क्रांति आ गयी है| पहले जहाँ खाली समय में परिवार साथ बैठकर लोग बातचीत करते थे, वहीं अब फेसबुक एवं व्हाट्सऐप मे व्यस्तता देखी जा रही है| वेबलेन (Veblen) के अनुसार प्रौद्योगिकी के कारण ही सामाजिक परिवर्तन होता है| वेबलेन को प्रौद्योगिकी निर्धारणवादी भी कहा जाता है| उन्होंने विश्व के 100 परिवर्तन में से 90 परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिकी को कारक माना है| सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिकी कारक को निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है

(I) मशीनीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन – नवीन मशीनों के निर्माण से सामाजिक संबंधों में परिवर्तन देखा जाता है| मार्क्स भी मानते हैं कि उत्पादन का तरीका (Mode of production) समाज को निर्धारित करता है| प्रौद्योगिकी में परिवर्तन से उत्पादन प्रणाली बदल जाती है एवं समाज एक अवस्था से दूसरे अवस्था को प्राप्त करता है|

मशीनीकरण के कारण ही प्रेस, भाप का इंजन, मोबाइल, कंप्यूटर, हवाई जहाज आदि का निर्माण हुआ है, जिसने लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है|

मैकाइवर (Maciver) के अनुसार भाप के इंजन के आविष्कार ने मानव के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को इतना प्रभावित किया है, जितना उसके आविष्कारक ने भी कल्पना नहीं की होगी|

अॉगबर्न (Ogburn) के अनुसार रेडियो के आविष्कार ने 150 परिवर्तन को जन्म दिया है|

(II) औद्योगीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन – फैक्ट्रियों में उत्पादन इतना अधिक होने लगा कि लोगों की आवश्यकता की चीजें सस्ती एवं सुलभ हो गई, साथ ही फैक्ट्री में सभी जाति, धर्म, क्षेत्र के लोग एक साथ काम करने लगे एवं एक ही कैंटीन में भोजन करने लगे| इसने जाति के छुआछूत संबंधी निषेध को बहुत हद तक समाप्त कर दिया है|

(III) सूचना प्रौद्योगिकी एवं सामाजिक परिवर्तन – पहले जहाँ लोग अपने परिवार या नातेदार के सदस्य जो दूर रहते थे, उनसे बात करने के लिए पत्र या पोस्टकार्ड का उपयोग करते थे| किन्तु अब मोबाइल के अविष्कार ने लोगों को केवल एक दूसरे की आवाज सुनने तक ही सीमित नहीं किया बल्कि प्रत्यक्ष रुप से एक दूसरे को देखने के लिए वीडियो कॉलिंग की सुविधा भी उपलब्ध है|

सूचना प्रौद्योगिकी ने वैवाहिक जीवन को भी प्रभावित किया है| इंटरनेट पर शादी डॉट कॉम जैसी बहुत सारी वेबसाइट है जो लोगों को अपनी पसंद का वैवाहिक रिश्ता बनाने में सहायता प्रदान करती है| अब परिवार द्वारा तय की गयी शादियों में कमी आयी है| इस तरह समाज में नए तरह का परिवर्तन देखा जा रहा है|

(IV) प्रौद्योगिकी एवं सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन – पहले जहाँ घर के साथ नौकरी-पेशा के लोगों में अधिकांशतः अनौपचारिक संबंध होते थे| किंतु अब तकनीकी विकास ने लोगों को धीरे-धीरे व्यक्तिवादी बना दिया है| अब संबंध भावनात्मक या अनौपचारिक न रहकर औपचारिक बनते जा रहे हैं| व्यक्ति सिर्फ अपने काम एवं मुनाफा तक अपने आप को सीमित करने लगा है| क्षमता के अनुसार कार्य एवं आवश्यकतानुसार ग्रहण का मूल्य बदल रहा है|

(V) उत्पादन प्रणाली एवं सामाजिक परिवर्तन – कृषि क्षेत्र से लेकर कुटीर उद्योग तक में उत्पादन प्रणाली बदलने से सबके कार्य अलग-अलग हो गये हैं| पहले जहाँ व्यक्ति एक साथ बातचीत करते हुए उत्पादन कार्य करता था, किन्तु अब व्यक्ति के सामने सिर्फ मशीन रहता है| श्रम के विभाजन (Division of labour) ने समूह के स्थान पर व्यक्ति को अकेला मशीन के सामने खड़ा कर दिया है| श्रम विभाजन के साथ धीरे-धीरे विशेषीकरण (Specialization) भी हो गया है, जो मार्क्स के शब्दों में व्यक्ति को वस्तु की तरह बना दिया है| जिससे अलगाव (Alienation) की स्थिति उत्पन्न होती है|

(VI) ग्रामीण क्षेत्रों में नवीन तकनीक एवं सामाजिक परिवर्तन – ग्रामीण क्षेत्रों में पहले जहाँ आय का साधन जजमानी व्यवस्था तक सीमित था| व्यवसाय जातिगत आधार पर जन्म से निर्धारित था, किंतु ट्रैक्टर, हार्वेस्टर कंप्यूटर आदि तकनीकों ने सभी जातियों के लिए अवसर प्रदान किया है| तकनीकी प्रयोग प्रदत्त गुणों पर आधारित न होकर अर्जित गुणों पर आधारित हो गया है, जिससे धीरे-धीरे जजमानी व्यवस्था टूट गई एवं संबंधों में गुणात्मक बदलाव देखा जा रहा है|

4. सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक (Economic factors of Social change)

आर्थिक कारकों का तात्पर्य समाज की आर्थिक संरचना से हैं, जब आर्थिक संरचना में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संबंध भी परिवर्तित होने लगता है| कार्ल मार्क्स (Karl Marx) ने आर्थिक संरचना को उत्पादन प्रणाली (Mode of production) से संबोधित किया| उनके अनुसार जिस तरह समाज की उत्पादन प्रणाली होगी, वह समाज उसी तरह का होगा (जैसे – यदि खेत में बैल एवं हल का उपयोग होता है तो वह कृषक समाज है, किंतु ट्रैक्टर एवं अन्य मशीनों का उपयोग होता है तो वह औद्योगिक समाज है) उत्पादन प्रणाली में होने वाला परिवर्तन संपूर्ण सामाजिक संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करता है, जैसे – आदिम साम्यवाद से एशियाई समाज में परिवर्तन|

आर्थिक कारक समाज की अन्य संस्थाओं को प्रभावित कर उनमें परिवर्तन लाता है, जिसे निम्न बिंदुओं में देखा जा सकता है –

(I) आर्थिक कारक एवं परिवार – सामान्यतः परिवार में जो सबसे बुजुर्ग सदस्य होता है वही परिवार का मुखिया होता है एवं निर्णय में उसकी प्राथमिक भूमिका होती है किंतु जब कोई सदस्य रोजगार युक्त हो जाता है एवं समस्त परिवार आर्थिक रूप से उसी पर आश्रित होता हैं तो ऐसी स्थिति में परिवार में रोजगार युक्त व्यक्ति की भूमिका सर्वोपरि हो जाती है एवं परिवार नवीन तरीके से संचालित होने लगता है| इसके अतिरिक्त आर्थिक लाभ के लिए जो लोग घर से दूसरे जगह पलायन कर रहे हैं, इससे संयुक्त परिवार की जगह नाभिकीय परिवार में किस संख्या में वृद्धि हो रही है|

(II) आर्थिक कारक एवं धार्मिक संस्था – आर्थिक समृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे मनुष्य अब अपनी गरीबी एवं बेकारी को ईश्वर का अभिशाप न मानकर व्यक्ति के प्रयास की कमी मानने लगा है| जैसे-जैसे आर्थिक स्थिति एवं विकास बढ़ता जा रहा है| धर्म एवं ईश्वर के प्रति लोगों की आस्था में कमी आ रही है एवं मानवीय मूल्य प्राथमिक बनते जा रहे हैं|

(III) आर्थिक कारक एवं शिक्षा – जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हैं, उनमें लड़के ही नहीं लड़कियाँ भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रही हैं| यहां तक की तकनीकी शिक्षा भी ग्रहण कर रही हैं एवं स्वयं रोजगार युक्त होने का प्रयास करती हैं| किंतु जिन परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर है उसमें लड़का भी अशिक्षित रह जाता है| बाल श्रम पाया जाता है| समाज में दीन-हीन स्थित के साथ शोषण का शिकार भी हो जाते हैं| इस तरह आर्थिक स्थिति व्यक्ति के जीवन की दिशा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है|

(IV) आर्थिक कारक एवं स्थानांतरण – जिन समुदायों या क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है| वहाँ रोजगार की कमी रहती है| व्यक्ति को स्वरोजगार के लिए भी पर्याप्त धन नहीं रहता है| ऐसी स्थिति में उसे अपना स्थान छोड़कर दूसरे  स्थान को जीविकोपार्जन के लिए जाना पड़ता है| इसके विपरीत जहाँ आर्थिक रूप से सम्पन्नता है| वहाँ औद्योगीकरण होता है एवं रोजगार के पर्याप्त साधन उपलब्ध रहते हैं| ऐसे स्थानों पर अन्य क्षेत्रों से लोग रोजगार के लिए आते हैं एवं यहाँ की जनसंख्या बढ़ जाती है| जैसे – भारत में मुंबई एवं दिल्ली में जनसंख्या का संकेंद्रण बढ़ता जा रहा है इससे विभिन्न जाति धर्म क्षेत्र के लोग एक जगह एकत्रित चाहते हैं एवं सामाजिक संबंधों में बदलाव दिखायी दे रहा है|

(V) आर्थिक कारक एवं जजमानी व्यवस्था – जजमानी व्यवस्था में जहाँ मुख्य रूप से वस्तु विनिमय पाया जाता था| किंतु मुद्रा के प्रचलन ने सभी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित कर दिया| जिससे धीरे-धीरे लोग काम के बदले अपनी दैनिक मजदूरी लेने लगे एवं जजमानी व्यवस्था के सामाजिक संबंध समाप्त होकर बाजार आधारित संबंध स्थापित हो गये|

(VI) आर्थिक कारक एवं सामाजिक समस्यायें – जिन परिवारों या समुदाय की आर्थिक स्थिति निम्न है| वहाँ  अशिक्षा, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, मद्यपान, तस्करी, अपराध, बालश्रम आदि को तेजी से प्रश्रय मिलता है| इसके विपरीत जहाँ सम्पन्नता अधिक होती है वहाँ कुछ अपराधी गिरोह धन उगाही के लिए कार्य करते हैं| इससे दोनों जगहों पर सामाजिक संबंध में परिवर्तन देखने को मिलता है|

(VII) आर्थिक कारक एवं स्वास्थ्य – आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति शरीर के पोषण की सभी आवश्यक वस्तुओं को लेने में सक्षम होता है एवं बीमारियों का अतिशीघ्र इलाज प्राप्त करता है, साथ ही परिवार प्रसन्नचित रहता है| दूसरी तरफ जहाँ अभाव है वहाँ शरीर के लिए न्यूनतम पोषण भी नहीं मिल पाता है, साथ ही बीमारी होने पर पारिवारिक झगड़े एवं तनाव दिखायी देता है जो आपसे संबंधों को बुरी तरह प्रभावित करता है|

स्पष्ट है कि आर्थिक संरचना में परिवर्तन समाज की अन्य संस्थाओं को कम या अधिक प्रभावित करता है जो सामाजिक परिवर्तन के रूप में सामने आता है|

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5. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक (Cultural factors of Social Change)

समाज एवं संस्कृति दोनो एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है| संस्कृति के अंतर्गत विश्वास, मूल्य, परम्परा, शिष्टाचार आदि भौतिक एवं अभौतिक पक्ष शामिल हो जाते हैं| जैसे ही संस्कृति में परिवर्तन होता है व्यक्तित्व में परिवर्तन दिखायी देने लगता है, जो सामाजिक संबंधों, व्यवहार, प्रस्थिति एवं भूमिका में भी दिखायी देने लगता है, एवं अन्ततः सामाजिक परिवर्तन के रूप में सामने आता है|
सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारक को अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप से स्पष्ट किया है जिसमें सोरोकिन (Sorokin) एवं ऑगबर्न (Ogburn) के सिद्धांत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं|
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