दुर्खीम का धर्म का सिद्धान्त
दुर्खीम धर्म के सिद्धान्त में; धर्म की उत्पत्ति का कारण जानना चाहते थे| अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि धर्म सामूहिक प्रघटना का परिणाम है| समाज के लोगों द्वारा कुछ वस्तुओं को पवित्र माना जाता है| इसे उन्होंने टोटम कहा| ये वस्तुएं सामूहिक विश्वास का प्रतिनिधित्व करती हैं| एक व्यक्ति सामूहिक शक्ति की उपेक्षा नहीं कर पाता| इसी टोटम के प्रति लोगों में जो भय या रहस्य मनोभाव होता है; इसी से धर्म की नीव पड़ती है|
वास्तव में दुर्खीम का उद्देश्य धर्म का विश्लेषण करना नहीं बल्कि धर्म की उत्पत्ति के सामूहिक कारणों की खोज करना था| साथ ही वे धर्म के समाज पर प्रभाव का अध्ययन करना चाहते थे|
धर्म की उत्पत्ति का कारण
दुर्खीम अपनी पुस्तक “The Elementary forms of Religious Life” में धर्म की उत्पत्ति को सामूहिक घटना का प्रतिफल मानते हैं| उनके अनुसार धर्म एक मिथक है; लेकिन इसके अनुपालनकर्ता इसे वास्तविक मानते हैं; इसलिए यह एक सामाजिक तथ्य हो जाता है; और प्रत्येक सामाजिक तथ्य का कोई वास्तविक आधार होता है| धर्म का वह आधार दुर्खीम के अनुसार स्वयं समाज है|
इसी क्रम में दुर्खीम धर्म की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों जैसे- आत्मवाद, मानावाद, प्रकृतिवाद आदि सिद्धांतों की आलोचना इस आधार पर करते हैं कि; धर्म एक सामाजिक तथ्य है; अतः इसकी उत्पत्ति में प्रकृति नहीं; बल्कि सामाजिक कारकों का ही योगदान रहा है|
धर्म की उत्पत्ति के कारणों खोजने के प्रयास में दुर्खीम ऑस्ट्रेलिया की अरुन्टा (Arunta) जनजाति का अध्ययन करते हैं; जो सभ्यता के प्रारंभिक चरण में थी| उन्होंने टोटमवाद को प्रारम्भिक स्वरुप के रूप में पाया|
टोटम
टोटम जनजाति सोंच या विचारों की ऐसी व्यवस्था है; जो गोत्र की अमूर्त अभिव्यक्ति है| टोटम सांसारिक वस्तु होता है; यह नदी, पेड़, जानवर कुछ भी हो सकता है| इसे पवित्र समझा जाता है| यह एक प्रतीक होता है; इसी के आधार पर एक जनजाति दूसरी जनजाति से अलग पहचान रखती है|
पवित्र एवं अपवित्र की धारणा
दुर्खीम पवित्र (sacred) एवं अपवित्र (profane) के अपने प्रसिद्ध द्वि-विभाजन के आधार पर धर्म के स्वरुप का विश्लेषण किया| उनके अनुसार सांसारिक जीवन की समस्त वस्तुओं को दो भागों में बाटने के प्रवृत्ति है- 1. पवित्र 2. अपवित्र
पवित्र का सम्बन्ध सामूहिक जीवन से है; जो अपने किसी गुण विशेष के कारण नहीं; बल्कि समाज के लोगों द्वारा मानने से पवित्र कहलाती है| पवित्र वस्तुएं पृथक रखी जाती हैं; एवं सामान्य अवसरों पर निषिद्ध मणि जाती है|
टोटम का महत्त्व सामूहिक अवसरों पर ज्ञात होता है; जब व्यकित को नातिक समूह शक्ति (टोटम) के सामने; अपनी व्यक्तिगत शक्ति गौण एवं हीन मालूम पड़ती है| यही कारण है की व्यक्ति टोटम की उपेक्षा नहीं कर पाता| टोटम के प्रति जो भय या रहस्य उत्पन्न होता है; उसी के आधार पर पवित्रता की भावना पनपती है| यहीं से धर्म की नीव पड़ती है| इसलिए दुर्खीम ने कहा है कि सभी धर्मों का आरंभिक स्वरुप टोटम ही रहा होगा|
अपवित्र की व्याख्या में दुर्खीम कहते हैं कि अपवित्र वस्तुओं के प्रति समाज का दृष्टिकोण उपयोगितावादी होता है| यह समाज की सामूहिकता का प्रतिनिधित्व नहीं करता| बल्कि समाज अपने सदस्यों को इन वस्तुओं के प्रति स्वतंत्र विचार तथा व्यवहार की स्वीकृत देता है|
उपर्युक्त के आधार पर दुर्खीम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं; चूँकि अरुण्टा एक आदिम जनजाति है; एवं अपने विकास के प्राथमिक अवस्था में है; इसलिए टोटमवाद ही धर्म का प्रारंभिक स्वरुप है|
आलोचनात्मक मूल्यांकन
1. इसकी आलोचना में गोल्डन वाईजर कहते हैं; कई ऐसे समाज हैं जिनमे टोटम तथा धर्म एक न होकर अलग-अलग हैं|
2. वाल्टन मेयर के अनुसार इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि; अरुण्टा ही इस संसार की सबसे आदिम जनजाति है| दूसरा अन्य आदिम जनजातियों में जो धर्म का स्वरुप है; वह धर्म की उत्पत्ति का प्रारंभ क्यों नहीं है|
3. दुर्खीम के विचार सरल समाजों के सम्बन्ध में प्रासंगिक हो सकते हैं; लिकिन आधुनिक समाज के लिए पूर्णतः उपयुक्त नहीं है|
4. इसकी आलोचना इसलिए भी की जाती है कि; धर्म का अर्थ पूजा करना नहीं होता|
कुछ कमियों के बावजूद दुर्खीम का धर्म सम्बन्धी विचार; धर्म के रहस्यात्मक आवरण को हटाया है; एवं इसे लौकिक यथार्थ के रूप में चित्रित किया है|
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